मुन्ना सबके अंदर है - यशवंत देशमुख
कुछ विषय आपके मन , या परिस्थिति , या फिर आपके व्यक्तिगत या साझा अनुभवों के साथ इतने गहरे पैठे होते हैं , की उनको कुरेदने का साहस खुद कोई नहीं कर पाता है । या तो बाहरी हालात उन विषयों पर वापस आने की हिम्मत देते हैं , या फिर किसी और की हिम्मत आपको केवल इस बात का हौसला देती है की तुम्हें खुद कुछ कहना या करना नहीं है बल्कि कहने और करने वाले के बगल में जा कर केवल खड़े होना है । समर्थन देने या प्रोत्साहन देने के लिए नहीं , बल्कि केवल मूक भागीदार होने की पुष्टि करने के लिए । केवल ये जताने के लिए , कि पूरी कहानी या पूरा उपन्यास न सही, पूरे उपन्यास में कोई भूमिका निभा रहा किरदार विशेष भी न सही, लेकिन इस कहानी का कोई न कोई एक पन्ना हमारी आपकी ज़िंदगी को मानो बाँच कर निकल रहा होता है । उस पन्ने को देखने या सुनने या बाँचने के लिए भी साहस चाहिए। सोचिए की फिर बयान करने के लिए कितने साहस की जरूरत होती होगी ! “मैं मुन्ना हूँ“ करीब एक महीने मेरी डेस्क पर रही और में पढ़ने का साहस न जुटा सका । ठीक वैसे ही जैसे मैं उस दिन तक “तारे जमीन पर“ नहीं देख पाया, जिस दिन तक मेरी बिटिया ने मुझे अंतिम सीन दिखा कर