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यह एक कहानी नहीं, एक चित्रण है। यह जीवित है, मुझमें और आपमें - विवेक अग्निहोत्री

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फ़िल्म की शूटिंग से थका हारा आया था। सोचा कोई नयी किताब पढ़ लूँ। कई उठायीं ओर कुछ पन्ने पढ़ने के बाद वापस धर दीं। वो ही सब घिसा पिटा जो कई बार कहा जा चुका है। फिर याद आया मनीष श्रीवास्तव ने भी अपनी किताब भेजी थी। पुराने ढेर में कहीं खो गयी थी, मिल नहीं रही थी तो थोड़ा उनसे नज़रें भी बचा रहा था। शर्मिंदा था।  जब आज सुबह पढ़ने की बहुत तालब लगी, सोचा क्या करूँ तो तो पहले थोड़ा हंगामा किया, पत्नी बोली किताब ही तो पढ़नी है इतना भूचाल मचाने की क्या आव्यशक्ता? अब कैसे बताता तलब वालों की अंतड़ियों की गुड़गुड़ाहट। फिर क्या था एक सीढ़ी जुगाड़ी और चढ़ के ऊपर से धूल से ढँकी पुरानी किताबें निकालने लगा। तभी एकदम से टपकी मनीष की किताब - मैं मुन्ना हूँ। ऐसे जैसे मलबे में दुबका कोई बच्चा। तो यहाँ छुपी पड़ी थी। बड़े शहरों के नौकर हिंदी की किताबों को ऐसे छुपा देते हैं कोने में जैसे किसी बड़े देश के राष्ट्रपति के आने पे हम अपने स्लम्स।  बड़ा ग़ुस्सा किया नौकर पे फिर एक प्याली चाय के साथ सोचा कुछ पन्ने पढ़ लेता हूँ। एक ट्वीट कर दूँगा तो काम से कम शर्मिंदगी तो काम होगी। वैसे ट्विटर ने लोगों को आँखों की शर्म

मुन्ना सबके अंदर है - यशवंत देशमुख

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  कुछ विषय आपके मन , या परिस्थिति , या फिर आपके व्यक्तिगत या साझा अनुभवों के साथ इतने गहरे पैठे होते हैं , की उनको कुरेदने का साहस खुद कोई नहीं कर पाता है । या तो बाहरी हालात उन विषयों पर वापस आने की हिम्मत देते हैं , या फिर किसी और की हिम्मत आपको केवल इस बात का हौसला देती है की तुम्हें खुद कुछ कहना या करना नहीं है बल्कि कहने और करने वाले के बगल में जा कर केवल खड़े होना है । समर्थन देने या प्रोत्साहन देने के लिए नहीं , बल्कि केवल मूक भागीदार होने की पुष्टि करने के लिए । केवल ये जताने के लिए , कि पूरी कहानी या पूरा उपन्यास न सही, पूरे उपन्यास में कोई भूमिका निभा रहा किरदार विशेष भी न सही, लेकिन इस कहानी का कोई न कोई एक पन्ना हमारी आपकी ज़िंदगी को मानो बाँच कर निकल रहा होता है । उस पन्ने को देखने या सुनने या बाँचने के लिए भी साहस चाहिए। सोचिए की फिर बयान करने के लिए कितने साहस की जरूरत होती होगी ! “मैं मुन्ना हूँ“ करीब एक महीने मेरी डेस्क पर रही और में पढ़ने का साहस न जुटा सका । ठीक वैसे ही जैसे मैं उस दिन तक “तारे जमीन पर“ नहीं देख पाया, जिस दिन तक मेरी बिटिया ने मुझे अंतिम सीन दिखा कर

“Main Munna Hu” is an elixir of hope.... Book Review by Shikha Sharma

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“Main Munna Hu” is an elixir of hope and an incitement to the shriveled and muted voices; an intense message to the survivors that the shame is on the aggressor and not on them. The desire to molest a child is already ‘there’ even before the child appears! The depiction of the trauma that a child has to go through seemed real but the spirit to survive and the denial will to surrender against the vandalized and assaulted dignity is the epitome of the novel. The mood and the tone of the novel is empathetic and optimistic respectively. Narrative of the “Mystical Vrindavan” and the “bucolic landscape of Nepal and Jharkhand” adds to a galore of sanguinity in the novel. Character coercion is avoided and the characters are built in the realm of necessity and avoiding the unnecessary nuances of character multitudes. E

यह पुस्तक, आपको कभी उदास कर देगी, आपको नटखट किशोर घटनाओं से गुदगुदाएगी, आपको भावुक कर देगी

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मैं मुन्ना हूं, एक क्यूट से लड़के के परेशान बचपन के बारे में एक दिल को छू लेने वाली कहानी जो रिश्तेदारों, पड़ोसियों और अज्ञात लोगों द्वारा उनकी हवस का शिकार बनाया गया था। लड़का आखिरकार एक दिन अपने यौन उत्पीड़न को ना कहने का साहस जुटाता है। हालांकि वह ना कह देता हैं और बचकर भाग जाता हैं, फिर भी वह अब भी परेशान है और भयावह यादों से ग्रसित है। शारीरिक और मानसिक रूप से अकेला वह भटक रहा होता है और दिव्य समर्थन पाता है और फिर से थोड़ा सामान्य महसूस करने लगता है। कहानी बचपन की शरारतों और मुन्ना के अनगिनत किस्सों के साथ आगे बढ़ती है। किशोरावस्था अपनी कई कहानियां और प्यारी परेशानियों को लाता है, जो मुन्ना कुशलता से निपटता है। एक युवा मुन्ना अपने बचपन के क्रश से मिलता है और अन्तः उससे शादी करता है। कहानी यहाँ से एक नया मोड़ लेती है ... उसकी शादीशुदा ज़िन्दगी कैसी होती है, यह जानने के लिए किताब पढ़ें कि कैसे एक व्यक्ति जिसने बचपन के यौन शोषण का सामना किया है, वो जीवन में कैसे आगे बढ़ता है। यह कहानी हमें अपने बच्चों से यौन शोषण के बारे में क्यों बात करनी चाहिए यह भी बताती हैं। यह पुस्तक, आपको कभी

किन्नू और मुन्ना की अलौकिक मैत्री अचंभित कर देने वाली है - तूलिका

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  मनीष श्रीवास्तव लिखित उपन्यास "मैं मुन्ना हूँ" का आरंभ ही कुछ विचलित कर देने वाले प्रसंगों से होता है जो हमें न केवल सत्य से अवगत होने को सचेत करते हैं बल्कि हमें आने वाले भावनात्मक आघातों को सहने को तैयार भी करते हैं। मुन्ना की यात्रा के आरंभ से ही उसके प्रिय मित्र किन्नू की उपस्थिति उत्सुक करती है। आगे बढ़कर यह स्पष्ट होता है कि किन्नू एक काल्पनिक चरित्र है जो मुन्ना को उसके जीवन की विचलित करने वाली यात्रा से अवगत कराने वाला सूत्रधार भी है और उसके जीवन में जिस संबल और स्नेह  कमी रही है उसका प्रतिरूप भी। किन्नू मुन्ना का हाथ थामता भी है और छोड़ता भी है। उसका सहारा भी बनता है और उसे सहारा न लेना पड़े इस काबिल भी बनाता है। किन्नू और मुन्ना की अलौकिक मैत्री मुन्ना के साथ साथ पाठकों को भी दैविय शक्तियों में विश्वास ढूंढने का साहस देते हैं।  पूरे उपन्यास में मुन्ना केवल एक चरित्र नहीं रहता वह एक भोगे हुए यथार्थ का छुपाया हुआ प्रतिरूप हमारे समक्ष उजागर कर रहा है जिसे जीवन के अलग पड़ावों में हम सब ने जिया है, भोगा है और छुपाया है।  मुन्ना अपनी पूरी यात्रा में केवल अपनी एक व्यथा ल

पुस्तक नदी के प्रवाह की तरह है - मैं मुन्ना हूँ ( एक समीक्षा)

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मैं मुन्ना हूँ किताब एक साहसिक प्रयास है ऐसे विषय को उठाने का जिसका ख्याल भी मन में वितृष्णा उत्पन्न करता है। बाल यौन शोषण को केन्द्र में रखते हुए व्यक्क्तिव पर उसके असर को मुन्ना की कहानी के जरिए बखूबी उधेड़ा है लेखक मनीष श्रीवास्तव ने। विषय ऐसा है कि कहानी की नींव तैयार करते समय किताब शुरुआत में पाठक को तकलीफ देती है। ऐसी तकलीफ जिससे वो किताब बंद करते ही छुटकारा पा सकता है पर वो ऐसा कर नहीं पाता। वो मुन्ना के सफर में उसके साथ बढ़ चलता है। मुन्ना के स्कूल और कॉलेज की जिंदगी में नब्बे के दशक के छोटे शहरों के मध्यमवर्गीय परिवार का जीवन दिखता है। लेखक की पकड़ जमीनी है जो उसके किरदारों व उनकी बातों से उभर कर कर सामने आती है। इस पुस्तक के पात्र देखे हुए से लगते हैं क्योंकि वो पाठक के आसपास के लोग हैं जिन्हें लेखक ने पात्र के रूप में गढ़ दिया है। किस्सागोई बहुत रोचक ढंग से की गई है और एक बार किताब में घुस जाने के बाद किताब एक तरह से सिर पर सवार हो जाती है और पाठक उसे खत्म करके ही चैन पाता है।   किताब में कुछ ऐसी चीजें भी हैं जिन पर सवाल उठाए जा सकते हैं। इतने संवेदनशील और दर्दनाक विषय पर लि

इस कहानी में बचपन के किस्से है, प्रेम है, गिरना है, उठना है और फिर गिर कर, उठकर संभलकर, खड़े होने की कहानी है। - सरोज सिंह ( एक समीक्षा)

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  " मैं मुन्ना हूँ " - नायक के मानसिक विदलन और सृजनात्मक विकास व उपलब्धियों की कथा है। समकालीन सनसनियों में से एक से शुरू हुई यह कथा आपको एक बालक , एक किशोर , एक युवक के उस आदिम अरण्य में ले जाती है जहाँ उसके भोगे गए यथार्थ का मनोविज्ञान है। इस उपन्यास में सबसे ज्वलंत मुद्दा जो उठाया गया है वह है - “ बाल यौन शोषण ”                    नायक ‘ मुन्ना ’ इस हादसे का दंश कई बार झेलता है कभी अपनों के द्वारा तो कभी गैरों के मार्फ़त। हमारे समाज की मानसिक विकृतियों के मनोविज्ञान की बारीकियों को से चित्रित करता सहज भाषा में लिखा गया यह उपन्यास बाध्यकारी विखंडनो से ग्रस्त समय में हर सजग पाठक के लिए एक अनिवार्य पाठ है , मेरा ऐसा भी मानना है। उपन्यास के नायक मुन्ना की कहानी शुरू होती है बचपन में , जहाँ वो यौन शोषण की त्रासदी झेलता है। शुरू में उसका अबोध मन समझ नहीं पाता और कई बार विरोध करना चाहते हुए भी कर नहीं पाता अंतत : उसका विरोध फ