पुस्तक नदी के प्रवाह की तरह है - मैं मुन्ना हूँ ( एक समीक्षा)
मैं मुन्ना हूँ किताब एक साहसिक प्रयास है ऐसे विषय को उठाने का
जिसका ख्याल भी मन में वितृष्णा उत्पन्न करता है। बाल यौन शोषण को केन्द्र में
रखते हुए व्यक्क्तिव पर उसके असर को मुन्ना की कहानी के जरिए बखूबी उधेड़ा है लेखक
मनीष श्रीवास्तव ने। विषय ऐसा है कि कहानी की नींव तैयार करते समय किताब शुरुआत
में पाठक को तकलीफ देती है। ऐसी तकलीफ जिससे वो किताब बंद करते ही छुटकारा पा सकता
है पर वो ऐसा कर नहीं पाता। वो मुन्ना के सफर में उसके साथ बढ़ चलता है।
मुन्ना के स्कूल और कॉलेज की जिंदगी में नब्बे के दशक के छोटे शहरों
के मध्यमवर्गीय परिवार का जीवन दिखता है। लेखक की पकड़ जमीनी है जो उसके किरदारों व
उनकी बातों से उभर कर कर सामने आती है। इस पुस्तक के पात्र देखे हुए से लगते हैं
क्योंकि वो पाठक के आसपास के लोग हैं जिन्हें लेखक ने पात्र के रूप में गढ़ दिया
है। किस्सागोई बहुत रोचक ढंग से की गई है और एक बार किताब में घुस जाने के बाद
किताब एक तरह से सिर पर सवार हो जाती है और पाठक उसे खत्म करके ही चैन पाता है।
किताब
में कुछ ऐसी चीजें भी हैं जिन पर सवाल उठाए जा सकते हैं। इतने संवेदनशील और
दर्दनाक विषय पर लिखी गई पुस्तक में फिक्शन का प्रयोग चौंकाता है। हालांकि वो कल्पनाशीलता
किताब की रोचकता को बढ़ाती है लेकिन कहानी के वास्तविक जैसी होने के अहसास को कम
भी करती है। भगवान किसी के सबकांशस माइंड में आकर उसे गाइड करते मुन्नाभाई
एमबीबीएस फिल्म की तर्ज पर तो उसका वैज्ञानिकता से विरोध न होता जैसा कि पुस्तक
में बस में सोने के दौरान मुन्ना की वृंदावन यात्रा वाले हिस्से में है पर नेपाल
में जीते जागते पात्र के रूप में उसका प्रयोग किताब की कहानी को सिर्फ वास्तविक
नहीं रहने देता।
लेखक की एक और काबिलियत पौराणिक कथाओं और मंदिरों के इतिहास की गहरी जानकारी
होना है जिसका प्रयोग उन्होंने इस किताब में भी किया है। हालांकि इस पुस्तक में ऐसा
करना कितना सही है ये पाठक पर निर्भर है क्योंकि किताब इतने रोचक ढंग से आगे बढ़ती
है कि ये भी संभव है कि आगे क्या हुआ जानने की उत्कंठा में पाठक उस गूढ़ हिस्से के
पढ़ने के बजाय देख कर आगे बढ़ जाए। फिक्शन,धर्म और बाल यौन
शोषण तीनों अलग-अलग प्लेन की चीजें हैं जिनका एक ही किताब में प्रयोग करने का
जोखिम लेखक ने लिया है क्योंकि तीनों विषयों पर उसकी मजबूत पकड़ है। ये प्रयोग
कितना सही है ये पाठक की पसंद पर भी निर्भर है। किताब में कुछ जगहों पर अंग्रेजी
के फांट का भी प्रयोग है जो शुद्धतावादियों को अखर सकता है। जो लोग आगरा में रहे
हैं उनके लिए एक अतिरिक्त आनंद वहां के इलाकों का कहानी में
वास्तविक ढंग से प्रयोग है। रांची के मामले में भी
काफी हद तक वो अनुभव प्राप्त होता है लेकिन कहानी में प्रयुक्त बाकी शहरों के बारे
में ऐसा नहीं कहा जा सकता।
इस विचारोत्तेजक और रोचक किताब में समय बीतने की रफ्तार समान नहीं है
और मुन्ना की शादी के बाद कई साल बहुत तेजी से बढ़ जाते हैं। शायद कहानी के
उद्देश्य से जुड़े हिस्सों को पकड़े रहना उसका कारण रहा हो। अंत में मुस्लिम से
शादी का रहस्योद्घाटन कोई बहुत वैल्यू एड नहीं करता क्योंकि कहानी में उस समस्या
की कोई चर्चा है भी नहीं सिवाय उस कारण के स्पष्टीकरण के कि शादी के बाद मुन्ना
परिवार से अलग होकर दूसरे शहर क्यों गया। पूरी कहानी में पात्र के सिर्फ मुन्ना
नाम का प्रयोग भी कुछ अटपटा सा लगता है क्योंकि ऑफिस में भी मुन्ना ही प्रयोग किया
गया है ताकि अंत के रहस्योद्घाटन को और दमदार बनाया जा सके जब नाम का खुलासा हो।
हालांकि इसका जस्टिफिकेशन ये दिया जा सकता है कि बचपन के मुन्ना के
अनुभव उसके पूरे जीवन के दिशा देते हैं ये दिखाना पुस्तक का उद्देश्य था इसलिए उसे
बड़ा होने पर भी मुन्ना ही रखा गया। किताब में मुन्ना के बच्चे के स्कूल में भाषण वाला
हिस्सा बहुत दमदार है जो किताब के उद्देश्य को पूर्ण कर देता है।
कहानी का अंत रोचक और सकारात्मक है जिसके कारण पाठक किताब खत्म करते
समय सकारात्मक सोच के साथ विषय को देखता है। इस पुस्तक की विशेषता एक जरूरी मुद्दे
को पावरफुल ढंग से न सिर्फ उठाना है बल्कि किताब से पाठक को कनेक्ट करना है। पूरी
पुस्तक नदी के प्रवाह की तरह बढ़ती जाती है और पढ़ने वाला कहीं ऊबता नहीं। इस पुस्तक के लिए लेखक मनीष श्रीवास्तव को
बधाई। आशा है भविष्य में वो अपनी लेखन क्षमता और कल्पनाशीलता से नई किताबों का
सृजन करते रहेंगे।
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